भरतीय संस्कृति के प्राचीन धर्म ग्रंथों में उत्तराखण्ड़ का उल्लेख केदार खंड, मानखंड और हिमखंड के रुप में मिलता है। लोक कथा के अनुसार पांडव यहां आए थे और विश्व के सबसे प्राचीन महाकाव्य भारत व रामायण की रचना यहीं हुई थी।
डा0 बबीता सिंह, प्राचार्य महाराजा अग्रसेन हिमालयन गढ़वाल महाविद्यालय के निर्देशन एवं डीन डा0 शैलेश सिंह के सहयोग से महाराजा अग्रसेन हिमालयन गढ़वाल विश्वविद्यालय में अन्तराष्ट्रीय कॉन्फरेन्स का आयोजन किया गया। अन्तराष्ट्रीय कॉन्फरेन्स में रुपाली वशिष्ठ के शोध पत्र “महाभारत काल प्राचीन भारतीय इतिहासः लाखामडंल – विकसित भारत मे योगदान” विषय को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। उक्त शोध पत्र में उत्तराखण्ड़ की सांस्कृतिक विरासत पर अध्यययन किया गया है। हिमालय के मध्यवर्ती का एक आंचल है। उत्तराखण्ड जिसे भौगोलिक रुप से मध्य हिमालय कहा जाता है। महाकवि कालिदास ने अनपे महाकाव्य के मंगल श्लोक में हिमालय की वंदना कर नगाधिराज को देवों की आत्मा एवं पृथ्वी का मानदंड कहा।
अस्तुततरसयां दिषिदेवातमा, हिमालयोनाम नगाधिरातः।
पूर्वारौ तोयनिधि वगाहा सिथतः पृथ्वीया इव मानदण्ड।।
लाखामडंल उत्तराखण्ड के देहरादून जिले के चकरराता तहसील के जौनसार- बावर क्षेत्र के अंतर्गत आता है। लाखामडंल समुद्र तल से 1372 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है एवं यमनोत्री से 75 किलोमीटर की दूरी पर है। लाखमंडल यमुना नदी के किनारे बसा हुआ है। सह स्थान महादेव शिव के अनोखे मंदिर के लिए जाना जाता है और यहां जगह जगह पर शिवलिंग और मूर्तियां देखने को मिल जाती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा समय समय पर की गई खुदाई में शिवलिंग के अलावा कई देवी-देवताओं की प्राचीन एवं अनोखी दुर्लभ मूर्तियों के हजारो अवशेष मिले हैं। यहां की ऐतिहासिकता एवं पौराणिकता का स्थानीय लोगों के लिए बहुत महत्व है। यहां के इतिहास से प्रभावित होकर हर साल हजारों की संख्या में पर्यटक यहां पहुते हैं।
उत्तराखण्ड में जौनसार का लाखमंडल क्षेत्र पाण्डवों के अज्ञातवास का साक्षी रहा है। यहां पर दुर्योंधन ने पाण्डवों को जलाने के लिए लाक्ष्यागृह का निर्माण कराया था। इसी कारण आदि केदार क्षेत्र का यह गांव लाखामंडल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्राचीन लाक्ष्यागृह में बने प्राचीन मन्दिर के स्थान पर बना वर्तमान मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। मन्दिर के समीप ही दो विशाल शिवलिंग हैं, इनमें से एक का केदार शिवलिंग तथा दुसरे को युधिष्ठिर शिवलिंग कहा जाता है। इस पांडव कालीन महत्व के देवनगरी लाखामंडल को सरकार ने राज्य के 13 टूरिस्ट डेस्टिनेशन में शामिल किया है।
पौराणिक कथा है कि महाराज पाण्डू के गुप्तवास के समय लाखामंडल में विचरण करते समय उनके तीर से उक हिरण की मृत्यु हो गयी थी। हिरण के श्राप के कारण कुछ ही दिनों बाद महाराज पाण्डू मृत्यु को प्राप्त हो गये थे।उस स्थान पर पाण्डू पुत्रों द्वारा शिव मन्दिर का निर्माण कराया था। तब लाखामंडल हस्तिनापुर राज्य के अधिन था। उस समय उत्तराखण्ड में नाग जाति का प्रभूत्व था। इस जसति का प्रभाव तत्कालीन मन्दिरों पर पडा। कहते हैं कि लाखामंडल का शिव मन्दिर छठी-सातवीं शताब्दी के आसपास बना था। मन्दिर के पीछे दो विशाल खूबसूरत आदमकद प्रतिमाएं हैं जिन्हे जय विजय की प्रतिमाएं हका जाता है। मन्दिर के प्रांगण में महाभारत कालीन संस्कृति और परम्पराओं के दर्शन आज भी होते हैं।
शोध पत्र में प्राचीन महाभारत कालीन लाखामंडल का विकसित भारत के योगदान के बारे में बताया है कि शोध पत्र एवं ऑडियों-विडियों के द्वारा हमारी भावी पीढ़ी एवं देश विदेश के पर्यटक हमारे इतिहास, हमारी संस्कृति एवं सभ्यता को जानेंगे। इसी प्रकार से उत्तराखण्ड एवं सम्पूर्ण भारत के प्राचीन मन्दिरों का विकास होगा।