देहराूदन। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में बुरांस और फ्यूंली या फ्योंली के फूलों का समय से पहले खिलना एक गंभीर पर्यावरणीय विषय बनता जा रहा है। हर साल की तरह इस बार भी बुरांस के फूल फरवरी माह में ही खिलते हुए दिखाई देने लगे हैं। वनस्पति वैज्ञानिकों का कहना है कि मौसम परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण यह सब हो रहा है। इससे प्राकृतिक चक्र में असामान्य बदलाव देखे जा रहे हैं। एक तरफ इन फूलों का खिलना लोगों के लिए खुशी की बात है तो वहीं वनस्पति वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के लिए यह चिंता का विषय है। क्योंकि यह पर्यावरणीय असंतुलन का संकेत हो सकता है। बुरांस और फ्यूंली के फूल आमतौर पर गर्मी के मौसम में खिलते हैं, लेकिन कुछ वर्षों से यह बदलाव देखने को मिल रहा है कि ये फूल फरवरी महीने में ही खिलने लगे हैं। यह वनस्पतियों पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को दर्शाता है जो प्राकृतिक तंत्र को बाधित कर रहा है। बर्फबारी का घटना न सिर्फ पर्यावरणीय संतुलन को प्रभावित कर रहा है, बल्कि क्षेत्र की जलवायु, कृषि और जल स्रोतों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
सवाल यह उठता है कि पर्वतीय क्षेेत्रों में जलवायु परिवर्तन बडे शहरों की वजह से हो रहा है या पहाडी क्षेत्रों में हो रहे कार्य भी इसके लिए उत्तरदायी है। पहाडों में हो रहे विकास कार्य भी इसकेे लिए उतने ही जिम्मेदार हैं। मेरी नजर में पहला कारण है हमारे मकान जो पहले लकडी, पत्थर व मिटटी सेे बनाये जाते थे। पर अब रेत, बजरी और लोहे से मकान बनाये जा रहे हैं जो मिट्टी पत्थर की अपेक्षा गर्मी को ज्यादा देर तक अपने में समाये रहते है।
दुसरा जगह जगह सडकें बनाने के लिए पेडों का कटान व उसके स्थान पर और पेड न लगाना। कहा जाता है कि एक वृक्ष दो डिग्री तक तापमान को कम कर देता है। स्थानीय लोगों एवं सरकार द्वारा भी प्र्याप्त मात्रा में पेड नही लगाये जाते। लगाये भी जाते है तो केवल खनापूर्ति के लिए खासकर सरकारी संस्थाओं द्वारा। यह भी कि पहाडी क्षेत्रों में वहां की मूल वन्सपति के पौधे ही लगाने चाहिए। देख्नने वाली बात है कि अभी हाल ही में हरेला पर्व पर जनता एवं सरकार द्वारा लाखों की संख्या में पौधें लगाये गये हैं। अब उन लाखों पौधौं में से कितने जीवित है। यदि पौधौं की सही देखभल कर उन्हें बचा लिया जाता है तो काफी हद तक ग्लोबल वार्मिग के खतरे को कम किया जा सकता है। हिमालयी क्षेत्रों में पेडों के कटान के स्थान पर पौधे लगाना और कार्ययोजना बनाते समय ही कटने वाले पेडों की संख्या के हिसाब से कार्य शुरु करन से पहले ही पौधे लगाने का प्रावधान भी होना चाहिए। साथ ही पौधौं को बचाने की जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए और पौधे न बच पाने पर पौधे लगाने वाले विभाग पर दण्ड का प्रावधान भी होना चाहिए। तीसरा नदियों में जगह जगह तालाब बांध बनाना भी जलवायु परिवर्तन का कारक बन रहा है। देखने में आया है कि जब से टिहरी बांध बना है तब से मौसम में भी परिवर्तन आया है।
विगत कुछ वर्षों से सरकार द्वारा सौर उर्जा से बीजली बनाने हेतु जनता एवं बडे निवेशकों को सौर उर्जा संयंत्र लगाने के लिए काफी प्रोत्साहित किया जा रहा है। पहाडों में कई स्थानों पर बडे बडे सोलर प्लाटं लग गये है। यहां लगे सोलर पैनलों से सूर्य की किरणें परिवर्तित होकर गर्भी को बढा सकती है और मौसम परिवर्तन में सहायक बन सकती है। वनस्पति वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के लिए सोलर प्लांट पर भी विचार करना चाहिए कि क्या इतनी बडी संख्या में सौर उर्जा संयत्र भी जलवायु परिवर्तन का कारक बन सकते है?
वैसे जलवायु परिवर्तन के मानव निर्मित अन्य भी बहुत से कारण हैं। सरकार, वनस्पति वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के साथ साथ जनता को भी ज्ञात कारणों पर समय से आवश्यक कार्यवाही हेतु कदम उठाने होंगे।